जोधपुर के राठौड़ | Jodhpur ka Rathore Vansh|मारवाड़ का राठौड़ वंश|जोधपुर के राठौड़ वंस|Marwar ka Rathore Vansh - मारवाड का इतिहास
जोधपुर के राठौड़ | Jodhpur ka Rathore Vansh|मारवाड़ का राठौड़ वंश|जोधपुर के राठौड़ वंस|Marwar ka Rathore
राठौड़ों की उत्पत्ति से संबंधित मत
राठौड़ों की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकार एकमत नहीं है अनेक इतिहासकारों ने इस संबंध में अपने-अपने मत प्रस्तुत किए हैं जिसमें प्रमुख मत निम्नलिखित हैं—
- राजस्थान के आधुनिक इतिहासकार डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा के अनुसार– मारवाड़ के राठौड़ राष्ट्रकूट वंश से संबंधित हैं
- मुहणोत नैणसी ने- इन्हें कन्नौज के जयचंद गढ़वाल का वंशज माना है इस मत का समर्थन दयालदास री ख्यात और पृथ्वीराज रासो में भी किया गया है
- सर्वप्रथम डॉक्टर हार्नली ने— राठौड़ों को गहड़वाल वंश से पृथक माना है
- डॉक्टर गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार- राठौड़ बदायूं के राठौड़ वंश का वंशज है
- जोधपुर राज्य की ख्यात में– राजा विश्वुतमान के पुत्र वृहदबल से राठौड़ों की उत्पत्ति मानी है
- 1596 में लिखित राठौड़ वंश महाकाव्य में–राठौड़ों की उत्पत्ति भगवान शिव के शीश पर स्थित चंद्रमा से बताई गई है
- कर्नल जेम्स टॉड ने ख्यातो के आधार पर- राठौर को जयचंद्र गढ़वाल का वंशज माना है
- राज रत्नाकर और कुछ जाटों के अनुसार–हिरण्यकश्यप की संतान माना गया है
- दयालदास के अनुसार– Suryavanshi/ब्रह्मम्णा के भल्लराव की संतान माना है (राजेश्वरी देवी के नाम पर)
- फलौदी के( 1555) शिलालेख के अनुसार– जयचंद्र गढ़वाल राठौर का आदि पुरुष माना गया है
राठौड़ राज्य का इतिहास
राजस्थान में अरावली के पश्चिम में स्थित क्षेत्र मारवाड़ के नाम से जाना जाता है प्राचीन काल में यह क्षेत्र मरूप्रदेश कहलाता था मारवाड़ शब्द मारवाड़ का विकृत रूप है मारवाड़ का वास्तविक नाम मरुस्थल या मरु उत्थान (मृत्यु का प्रदेश) है
इस क्षेत्र में जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, जालौर, नागौर, किशनगढ़ और पाली क्षेत्र सम्मिलित है यहां प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश और उसके पश्चात राठौर वंश का शासन हुआ जो राजस्थान के निर्माण तक रहा
राठौर शब्द भाषा में एक राजपूत जाति के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसे संस्कृत में राष्ट्रकूट कहते हैं राष्ट्रकूट का प्राकृतिक रूप रट्टऊड है। जिससे राडउड या राठौड़ बनता है
अशोक के शिलालेख में कुछ दक्षिण जातियों के लिए रिस्टिक लटिक और रटिक शब्दों का प्रयोग किया गया था यह सभी शब्द रट्ट शब्द के प्राकृत रूप हैं जो राष्ट्रकूट शब्द से मेल खाते हैं इसका तात्पर्य यह है कि राठौड़ शब्द राष्ट्रकूट से संबंधित है और उस जाति विशेष के लिए उपयुक्त हूआ है जो दक्षिण में राष्ट्रकूट नाम से विख्यात थी
राठौर वंश की शाखाएं
अशोक के समय से लेकर आज तक हमें इस वंश के संबंध में जानकारी अवश्य प्राप्त होती है यह भी निर्विवाद है कि राष्ट्रकूटों (राठौरों) का बड़ा प्रतापी राज्य सर्वप्रथम दक्षिण में था दक्षिण के राष्ट्रकूटों की वंशावली दंती वर्मा से आरंभ होती है जो लगभग 6ठी शताब्दी में प्रतापी शासक था
इनके ऊपर की 3 शाखाओं के राठौड़ दक्षिण के राठौड़ों के ही वंशज हो जाते हैं—
- हस्ती कुंड के राठोर गॉडवाड इलाके में राज्य करते थे
- जबकी कन्नौज में गढ़वाल शासन करते थे तो
- राष्ट्रकूटों की एक शाखा बदायूं में राज्य करती थी ।इस राज्य का प्रवर्तक चंदू था
बदायूं के शिलालेख में वोदामयुता बदायूं का प्रथम शासक और गढ़वाल के चंद्र देव को गाधीपुर (कन्नौज )का विजेता लिखा है यदि गढ़वाल और बदायु भी दोनों राठौर वंशीय होते तो इनका परस्पर विवाह संबंध नहीं हो सकता था
कैप्टन लुअर्ड,डॉ राम शंकर त्रिपाठी और हेमचंद्र राय ने गहड़वालों और राठौड़ के वंशो को भिन्न बताया है इन बातों पर विचार करने से तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि गढ़वाल और राठौर दो भिन्न-भिन्न जातिया हैं और उनमें परस्पर किसी प्रकार की समानता नहीं है
पंडित रेऊ भी मारवाड़ के राठौड़ो को कन्नौज के मानते हैं और इन्हें जयचंद के वंशज बताते हैं
डॉक्टर माथुर एक नया मत स्थिर रख करते हुए लिखते हैं कि– बदायूं के राष्ट्रकूट कन्नौज से बदायूं गए और दक्षिण राष्ट्रकूटों का 1200 ईस्वी के लगभग कन्नौज पर शासन रहा कन्नौज से राठौड़ों की एक शाखा बदायूं गई और दूसरी शाखा मारवाड़ आई जयचंद्र मारवाड़ के राठौड़ का आदि पुरुष था और राठौड़ और गहढ़वाल के वंशो में साम्यता रही
राजस्थान के राठौड़
राजस्थान के राठौड़, हस्तिकुंडी के राठौड़, धनोप के राठौड़, वागड़ के राठौड़, जोधपुर के राठौड़ और बीकानेर के राठौड़ के नाम से विख्यात है।
जोधपुर के राठौड़ ( Rathod of Jodhpur)
जोधपुर रियासत क्षेत्रफल की दृष्टि से राजपूताना एजेंसी की सबसे बड़ी रियासत थी यहां राठौरों का राज्य था स्वतंत्रता पूर्व केवल कश्मीर एवं हैदराबाद सियासत ही जोधपुर सियासत से बड़ी थी
राजस्थान के उत्तरी व पश्चिमी भागों में राठौड़ वंश के राजपूतों का साम्राज्य स्थापित हुआ जिसे मारवाड़ कहते हैं राठौड़ का शाब्दिक अर्थ राष्ट्रकूट होता है जो दक्षिण का एक राजवंश है। जोधपुर राठौड़ों का मूल स्थान कनौज था।
राठौड़ वंश- जोधपुर के राठौड़
- राव सीहा
- राव चूड़ा
- राव जोधा(1438-1489)
- राव मालदेव(1531-1562)
- राव चंद्रसेन(1562-1581)
- मोटा राजा राव उदयसिंह(1583-1595)
- महाराजा जसवंत सिंह प्रथम(1638-1678)
- महाराजा अजीतसिंह
- महाराजा मानसिंह(1803-1843)
वर्तमान राठौड़ो का मूल पुरुष-राव सीहा
राज्य के वर्तमान राठौड़ों का मूल पुरुष राव सिहा था। जो बदायूं के राठौरों का वंशधरया कन्नौज के गहड़वाल वंश का अथवा हथुंडी के राष्ट्रकूटों की शाखा से संबंधित कोई व्यक्ति था। राव सीहा को राजस्थान में राठौड़ राजवंश का संस्थापक माना जाता था
बीठू गांव पाली के देवल अभिलेख के अनुसार राव सीहा कुंवर सेतराम(खेतराम) का पुत्र वह जयचंद का भतीजा था और उसकी सोलंकी वंश की पार्वती नामक रानी थी मारवाड़ में अपना पहला पड़ाव बीकानेर के कोल्हूमठ नामक गांव में डाला था
राव सीहा ने सोलंकी सरदार की मदद कर लाखा फुलानी पर विजय प्राप्त कर उसकी बहन से विवाह किया था
राव सीहा की मृत्यु 1273 में तब हुई जब वह अपनी द्वारिका यात्रा के दौरान मुसलमानों के विरुद्ध पाली प्रदेश की रक्षा के लिए मुस्लिम शासक फिरोज शाह द्वितीय/ नसरुद्दीन मोहम्मद से युद्ध किया था उस ने पाली के आसपास राठौर वंश की स्थापना की उसके पुत्र आसनाथ ने मूंदोच गांव में अपनी शक्ति का संगठन किया
राव सीहा द्वारा पाली की रक्षा के लिए मुस्लिम शासक फिरोज शाह द्वितीय/नसरुद्दीन मोहम्मद से किया गया युद्ध लाखा झंवर के नाम से जाना जाता है और यह स्थान धौला चोतरा कहलाता है विठू पाली गांव के शिलालेख से 9 अक्टूबर 1273 को मुसलमानों के विरुद्ध गौ रक्षा हेतु शहीद हो गए थे
आसनाथ 1273-1291
आसनाथ ने कोलू मंड सोलंकी की बहन पार्वती सोलंकी और राव सीहा का पुत्र था। आसनाथ ने मूंदोच नामक गांव में अपनी शक्ति का संगठन किया आसनाथ और जलालुद्दीन खिलजी की सेना में पाली की रक्षा के लिए 1291 में युद्ध हुआ जिसमें आसनाथ 140 साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ
धूहड़
आसनाथ का पुत्र धूहड़ खेड का स्वामी बना।धूहड़ ने राठौड़ों की कुलदेवी चक्रेश्वरी (नागणेची) की मूर्ति कर्नाटक से लाकर नागणा गांव बाड़मेर में स्थापित करवाई थी रायपाल वीरमदेव मल्लीनाथ राठौड़ वंश के शासक बने
वीरमदेव
वीरमदेव सीहा का वंशज था इसकी मृत्यु जोहिंयो से लड़ते हुए 17 अक्टूबर 1383 को हुई इसकी मृत्यु की यह तिथि बीकानेर के गजनेर गांव के एक चबूतरे पर लगी हुई देवली के लेख में भी दर्ज है वीरमदेव का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राव चूंड़ा हुआ
राव चूंडा़-1394-1423
वीरम देव के द्वित्तीय पुत्र राव चूड़ा को इस वंश का प्रथम प्रतापी शासक माना जाता है अपने पिता विरमदेव की मृत्यु के समय राव चूड़ा मात्र 6 वर्ष का था अतः उसकी माता द्वारा उसे कलाऊ के आल्हा चारण की संरक्षता में गुप्त रूप से रखा गया था और कुछ समय पश्चात उसे अपने चाचा मल्लीनाथ के पास भेज दिया गया
मल्लीनाथ द्वारा उसे सालोड़ी गांव की जागीर प्रदान की गई इन्होने मल्लीनाथ और इंदिरा परिहार के सहयोग से मांडू के सूबेदार से मंडोर दुर्ग छीना और मंडोर को अपनी राजधानी बनाया इसने अपने राज्य का विस्तार नागौर डीडवाना नाडोल आदि क्षेत्रों तक कर लिया
परिहारो के साथ अपने संबंधों को एक निश्चित आधार प्रदान करने के कारण राव चूड़ा को मारवाड़ में सामंत प्रथा को प्रारंभ करने का श्रेय दिया जाता है राव चूड़ा ने नागौर के सूबेदार जलाल खा खोखर को पराजित कर नागौर पर अधिकार कर लिया और मंडोर की देखरेख का कार्य अपने पुत्र सत्ता(सदा)के हाथों में सौंप कर स्वयं नागौर रहने लगा उसने नागौर के समीप ही चूंड़ासर नामक कस्बा बसाया ।
राव चूंडा़ ने अपनी मोहिलाणी रानी किशोर कुँवरी के प्रभाव में आकर अपने बड़े पुत्र रणमल के स्थान पर छोटे पुत्र कान्हा को अपना उत्तराधिकारी बनाया जिससे नाराज होकर रणमल मेवाड़ राणा लाखा की शरण में चला गया
राव चूड़ा की सोनगरी रानी चांद कंवर ने जोधपुर में प्रसिद्ध चांद बावड़ी का निर्माण करवाया था जिसे चांद बावड़ी कहा जाता है. जबकि प्रशिद्ध चाँद बावड़ी आभानेरी(दौसा) में स्थित है
राव चूंडा ने अपनी पुत्री हंसा का विवाह मेवाड़ के राणा लाखा के साथ हुआ जिससे मोकल का जन्म हुआ।
तुर्की आक्रमण राव चूंड़ा के समय आरंभ हुआ
वीर विनोद और जोधपुर की ख्यात के अनुसार ईंदो ने स्वयं मंडोवर विजय कर बाद में उसकी समुचित रुप से रक्षा करने में असमर्थ होने के कारण और इंदिरा शाखा के परिवारों ने अपने गांव 84 गांव में हस्तक्षेप न करने के उद्देश्य से प्रतिहारों के नेता रायधवल की पुत्री से राव चूड़ा का विवाह कराकर मंडोर दुर्ग राव चूड़ा को दहेज में दिया गया था और इंदिरा शाखा के प्रति हार मंडोर में राव चूड़ा के सामंत बन गए और इसी के काल में सामंत प्रथा की शुरुआत हुई और जिसका विकास राव जोधा के समय हुआ
भाटियों ने राव चूड़ा को संधि के लिए बुलाया जो ही राव चूड़ा वहां पहुंचा तो सभी ने मिलकर 15 मार्च 1423 को युद्ध में लड़ते हुए राव चूड़ा को मार दिया राव चूड़ा के छोटे पुत्र कान्हा का उत्तराधिकारी उसका भाई सत्ता हुआ
चुड़ा के पुत्र रणमल की हत्या मेवाड़ के सामन्तों द्वारा धोखे से (सोते हुए चारपाई से बांधकर) सन 1438 में चित्तौड़ में की गई.। एक नगारसी द्वारा रणमल के पुत्र जोधा को चेतावनी दी गई। जिससे वह बच निकला- “जोधा भाग सके तो भाग थारो रिड़मल मारयो जय”
राव जोधा
राव जोधा, रणमल का पुत्र था। राव जोधा ने मेवाड़ के अक्का सिसोदिया या अहाडा हिंगोला को हराकर मंडोर पर पुनः अधिकार किया।उसने अपनी पुत्री का विवाह कुंभा के पुत्र रायमल से कर मेवाड़, मारवाड़ वैमनस्य कम किया
राव जोधा सन 12 मई, 1459 जोधपुर नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया, तथा “चिड़ियाटूक पहाड़ी” पर दुर्ग (मेहरानगढ़) बनवाया, जोधा के पांचवें पुत्र बीका 1465 ईस्वी में “बीकानेर राज्य”की स्थापना की
मेहरानगढ़ दुर्ग के अंदर राव जोधा ने चामुंडा देवी के मंदिर का निर्माण कराया, जबकि मारवाड़ की कुलदेवी के रूप में नागणेची देवी को माना जाता है।
मारवाड़ के राव जोधा ने नियमित सामन्तवाद को अपनाया था सामन्तवादी व्यवस्था का उल्लेख गंगधार शिलालेख झालावाड़ में मिलता है
राव जोधा की रानी जसमादे ने जोधपुर में रानीसर झील का निर्माण करवाया।
राव जोधा के बाद उसका पुत्र सातलदेव,उसके पश्चात उसका भाई सूजा, सूजा के बाद बाधा तथा बाधा के बाद उसका पुत्र गंगा जोधपुर का शासक बना राव गंगा का राजतिलक बगड़ी के ठाकुर ने तलवार से अपने अंगूठे का चीरा लगाकर रक्त से किया
राव मालदेव (1532-1562)
राव मालदेव, राव गंगा का बड़ा पुत्र था, जो गंगा की हत्या कर मारवाड़ का शासक बना। जिन्होंने मुगल साम्राज्य के प्रारंभिक चरणों में हुमायूं के साथ सहयोग से इंकार कर दिया था। मुस्लिम इतिहासकारों ने उन्हें “हिंदुस्तान का सबसे शक्तिशाली शासक” और “हशमत वाला शासक” कहा था।
पाहोबा का युद्ध-1542 ई – बीकानेर के राजा जैत सिंह तथा जोधपुर के शासक राव मालदेव के मध्य यह युद्ध हुआ, इस युद्ध में जैत सिंह मारा गया, इसका पुत्र कल्याण मल, बीकानेर से भागकर शेरशाह सूरी के दरबार में शरण ली,
इस युद्ध में राव मालदेव के सैनिक कुम्पा मारवाड़ की सेना का सफल नेतृत्व किया इस विजय के उपरांत कुंपा को डीडवाना तथा झुंझुनू की जागीर व बीकानेर की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी प्रदान की
1540 ईस्वी के बिलग्राम युद्ध के बाद ही उपलब्धि प्राप्त हुई मेड़ता के वीरमदेव तथा बीकानेर के कल्याणमल इन दोनों शासकों ने शेरशाह सूरी को मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए उकसाया था
1542 में मुगल सम्राट हुमायूं शेरशाह सूरी से पराजित होने के उपरांत राव मालदेव ने हुमायूं को उचित सहायता तथा बीकानेर का परगना जागीर में देने का प्रस्ताव रखा लेकिन हुमायूं शेरशाह सूरी के भय के कारण बीकानेर में रहकर अमरकोट चला गया
राव मालदेव के शासन की सबसे महत्वपूर्ण घटना सामेल/ गिरी /सुमेल जैतारण का युद्ध माना जाता है. इस युद्ध में राव मालदेव को अपना राज्य खोना पड़ा तथा मारवाड़ को छोड़कर सिवाना के दुर्ग में जाना पड़ा
सुमेल या गिरी सुमेल युद्ध-1544ई – जनवरी 1544 ईस्वी में शेर शाह सूरी अपनी सेना को लेकर डीडवाना पहुंचा, डीडवाना पहुंचते ही मालदेव के सेनापति कूंपा ने यह खबर अपने राजा मालदेव को दी कि शेरशाह सूरी एक विशाल सेना के साथ सुमेर नामक स्थान पर आक्रमण करने के लिए आ पहुंचा है
माल देव भी एक विशाल सेना के साथ उसी स्थान पर जा पहुंचा तथा शेरशाह सूरी पर चढ़ाई कर दी दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें राजपूत सेना का नेतृत्व राव मालदेव के विश्वासपात्र सेनानायक “जेंता-कुपा” के हाथों में था
शेरशाह सूरी की सेना का नेतृत्व सेनापति जलाल खान जगवानी के हाथों में था शेरशाह सूरी की सेना जब युद्ध में हताश वह निराश हो गई तब युद्ध भूमि में ही शेरशाह सूरी नमाज पढ़ने लगा, इस स्थिति के बाद युद्ध में शेरशाह सूरी का पलड़ा भारी हो गया
लेकिन युद्ध के अंतिम क्षणों में राजपूत सेना असफल हुई सुमेल के युद्ध में राव मालदेव के विश्वासपात्र सेनानायक “जेता-कुम्पा” वीरगति को प्राप्त हुए अंतिम रूप से इस युद्ध में विजय शेरशाह सूरी को ही प्राप्त हुई
मुस्लिम इतिहासकार बदायूनी ने अपने ग्रंथ “मुंतखाब उत-तवारीख” तथा अब्बास खान शेरवानी ने अपने ग्रंथ “तारीख ए शेरशाही” में युद्ध का आंखों देखा हाल लिखा था
1544 ईस्वी के बाद राव मालदेव जोधपुर को छोड़कर सिवाना चले जाते हैं जब तक शेरशाह सूरी की मृत्यु नहीं हो जाती, तब तक वह सिवाना दुर्ग में ही रहे, इस दौरान राव मालदेव ने जोधपुर का शासन खवास खान को सौंपा था
सुमेल के युद्ध के बाद शेरशाह सूरी ने स्वयं यह लिखा था कि- “मैंने मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत खो दिया होता” क्योंकि शेरशाह सूरी ने छोटे से राज्य को प्राप्त करने के लिए दिल्ली की समस्त सेना को इस युद्ध में झोंक दिया फिर भी विजय शेरशाह सूरी को नहीं दिख रही थी
वर्तमान में सुमेल नामक स्थान पाली जिले में स्थित है सुमेल के युद्ध को जैतारण का युद्ध कहा जाता है। यह स्थान भी पाली में है।
मारवाड़ की ख्यात के अनुसार मालदेव 52 युद्धों का विजेता था, केवल सुमेल युद्ध में हारे थे।
मालदेव ने उदय सिंह को मेवाड़ का शासक बनाने में मदद की।
जेतां व कुंपा- मालदेव के दो वीर सेनानायक
मारवाड़ के इस शासक को फारसी इतिहासकारों ने विशेषकर “अब्बास खान शेरवानी” ने अपने ग्रंथ “तारीख-ए-शेरशाही’ में राव मालदेव को “हसमत वाला राजा” के नाम से संबोधित किया। इस का शासनकाल (1531-62 ई.) ईसवी तक माना जाता है, राव गंगा की मृत्यु के पश्चात मालदेव का राज्याभिषेक “सोजत के किले” में हुआ मालदेव अपने राज्याभिषेक के 1 वर्ष बाद जोधपुर आया.
बदायूनी ने “मुंतखाब-उत- तवारीख” लिखा
राव मालदेव जोधपुर आते ही अपने विस्तारवादी नीति को अपनाने लगे, जिसके तहत 1533 ईस्वी में नागौर, मेड़ता के शासक वीरमदेव भय के कारण दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी के दरबार में चला जाता है, जो गिरी सुमेल के युद्ध का प्रमुख कारण माना जाता है.
जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता के दुर्ग का निर्माण कराया जिसे मालकोट का दुर्ग कहते हैं, इसी दुर्ग के साथ राव मालदेव ने पोकरण का दुर्ग एवं सोजत के दुर्ग का भी निर्माण कराया
रूठी रानी
मालदेव की पत्नी उमा दे, जो जैसलमेर की रावल लूणकरण की पुत्री थी, जिसको रूठी रानी के नाम से जाना जाता था इसका विवाह 1536 में माल देव के साथ हुआ। विवाह वाली रात मालदेव नशे में चूर होने के कारण वह उमादे के पास न जाकर दासी के पास गया जिससे उमादे पहली रात ही रूठ गई(प्रचलित कथा)
विवाह के प्रथम दिन के पश्चात उमादे ने मालदेव का मुख कभी नहीं देखा उमादे को ही राजस्थान के इतिहास में रूठी रानी के नाम से जाना जाती है।
यह माना जाता है कि विवाह के अवसर पर लूणकरण ने मालदेव की हत्या का षड्यंत्र रचा था जिस की सूचना लूणकरण की रानी द्वारा अपने पुरोहित राघवदेव के माध्यम से मालदेव को दी गई थी और इसी कारण मालदेव और उमादे के मध्य विवाह हुआ। यह भी मनमुटाव का एक कारण रहा होगा।
उमा दे को मनाने के लिए मालदेव ने अपने भतीजे ईश्वरदास व अपने कवि आसा बारहठ को मनाने भेजा था और उमादे साथ चलने के लिए तैयार हो गई थी लेकिन आसा बारहट ने उमादे को एक दोहा सुनाया-
माण रखे तो पीव तज,पीव रखे तज माण!,दो दो गयंद न बंधही, हैको खंभु ठाण!!
इस दोहे को सुनकर उमादे का आत्म सम्मान जागा और वह जोधपुर नहीं गई।
वह अजमेर तारागढ़ चली गई। रूठी रानी ने अपना वक्त अपने पुत्र राम के साथ अजमेर के तारागढ़ के किले मे बिताया अजमेर मे शेरशाह के आक्रमण की संभावना थी तो उमादे अजमेर से कोसाना ओर वहा से गुंदोज व अंत में केलवा चली गई तथा मालदेव की 1562 मे मालदेव की मृत्यु के उपरांत उमादे मालदेव कि पगडी के साथ ही सती हो गई थी
पति की वस्तु के साथ सती होना अनुमरण कहलाता है
उमादे की सुविधा के लिए मालदेव ने तारागढ़ के किले में पैर से चलने वाली रहट का निर्माण करवाया।
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