गुहिल वंश -Guhil-Sisodia Dynasty
मेवाड़ का गुहिल वंश | मेवाड़ वंश का इतिहास
गुहिल वंश ( Guhil-Sisodia Dynasty Part1 ) सन 556 ई. मेरे जिस गुहिल वंश की
स्थापना हुई, बाद मे वही गहलोत वंश बना और इसके बाद यह सिसोदिया राजवंश के नाम से
जाना गया । जिसमे कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने इस वंश की मान मर्यादा, इज्जत और
सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय मे अपना नाम जोड़ा ।
Related image महाराणा महेंद्र तक यह वंश कई उतार-चढ़ाव और स्वर्णिम अध्याय रचते
हुए आज भी अपने गौरव व श्रेष्ठ परम्परा के लिए पहचाना जाता है । मेवाड अपनी
समृद्धि, परम्परा, अद्भुत शौर्य एव अनूठी कलात्मक अनुदानो के कारण संसार परिदृश्य
मे देदीपयमान है । स्वाधीनता एव भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो
अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये जो सदा स्मरण किये जाते रहेगे । मेवाड की वीर
प्रसूता धरती मे रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर, यशस्वी,
कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियो ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन्
संपूर्ण भारत को गोरानवित किया है । स्वतंत्रता की अलख जगाने वाले महाराणा प्रताप
आज भी जन जन के ह्रदय मे बसे हुए, सभी स्वाभिमानीयो के प्रेरक बने हुए है ।
वर्तमान- उदयपुर चित्तौड़ राजसमंद भीलवाड़ा डूंगरपुर बांसवाड़ा प्रतापगढ़ आदि
मेवाड़ के अंतर्गत आता है। प्राचीन नाम- शिवि, प्राग्वाट, मेद्पाट रहे हैं। मेवाड़
में गुहिल वंश से पहले मेर जाति का अधिकार होने के कारण इसका नाम मेद्पाट पड़ा।
मेवाड़ के गुहिल वंश का संस्थापक गुहिल या गुहादित्य था। जिसने लगभग 566 ईस्वी के
आसपास उदयपुर क्षेत्र में सत्ता स्थापित की तथा आरंभिक राजधानी नागदा (उदयपुर) रही।
गुहिलों की उत्पत्ति:- गुहिलों की उत्पत्ति एवं निवास स्थान के बारे में कई
विद्वानों में काफी मतभेद है। अबुल फजल के अनुसार मेवाड़ के गुहिल ईरान के बादशाह
नोशेखान आदिल की संतान है उनके अनुसार जब नोशेखान जीवित था तब उनके पुत्र नोशेंजाद
ने जिसकी माता रूम (तुर्की)के कैसर की पुत्री थी। अपना प्राचीन धर्म छोड़कर इसाई
धर्म स्वीकार किया और वह बड़ी सेना के साथ हिंदुस्तान में आया। यहां से वह फिर अपने
पिता के साथ लड़ने ईरान पर चढ़ा और वहां मारा गया। उसकी संतान हिंदुस्तान में ही
रही, उसी के वश में गुहिल हुए। गोपीनाथ शर्मा का मानना है कि गुहिल मूलतः आनंदपुर(
बड़नगर) में रहने वाले थे,जो ब्राह्मणों के वंशज थे तथा यहीं से आकर मेवाड़ में
राज्य स्थापित किया था। श्रीयूत देवदत्त भंडारकर(डी. आर. भंडारकर) एवं विक्रम संवत
1034 के आटपुर/आहड़ शिलालेख के अनुसार भी गुहिल” ब्राह्मण” थे।गुहिल के बाद मान्यता
प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय है जो मेवाड़ के इतिहास में महत्वपूर्ण
स्थान रखता है । डा .गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार बापा इसका नाम न होकर कालभोज
की उपाधि थी । डॉक्टर गौरीशंकर ओझा एवं मुहणोत नैणसी अनुसार गुहिल “सूर्यवंशी” थे।
कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार गुहिल वल्लभी के राजा शिलादित्य के वंशज है। कर्नल टॉड
ने इसके बारे में कहा कि सूर्यवंशी महाराजा कनक सेन की 8 वीं पीढ़ी में शिलादित्य
नामक एक राजा हुआ। शिलादित्य के शासनकाल में मलेच्छों ने आक्रमण कर वल्लभीपुर की
तहस-नहस कर दिया. Note:- कर्नल जेम्स टॉड एवं मुहणोत नैेणसी दोनों ने गुहिलों की 24
शाखाएँ बताई है,दोनों में अंतर है परंतु सिसोदा शाखा दोनों में उपलब्ध है। वर्तमान
में इसी शाखा के शासक महाराणा कहलाते है। गुहिल वंश मेवाड़ पर शासन करता था । गुहिल
वंश का आदिपुरूष गुहिल था । इस कारण इस वंश के राजपूत जहाँ -जहाँ जाकर वसे उन्होंने
स्वयं को गुहिलवंशीय कहा । गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने गुहिलों को विशुद्ध सूर्यवंशी
माना है । बापा का एक सोने का सिक्का मिला है जिसका वजन 115 ग्रेन था । अल्लट जिसे
ख्यातों में आलुरावल कहा गया है 10 वीं सदी के लगभग मेवाड़ का शासक बना । अल्लट ने
हूण राजकुमारी हरियादेवी के साथ विवाह किया था । अल्लट के समय ही आहड़ में वराह
मन्दिर का निर्माण किया गया था । आहड़ से पहले गुहिलों की गतिविधियों का प्रमुख
केन्द्र नागदा था । गुहिलों ने तेरहवीं सदी के प्रारंभिक काल तक मेवाड़ में कई
उथल-पुथल के बाद भी अपने कुल परम्परागत राज्य को कायम रखा । मेवाड़ का गुहिल वंश:-
उदयपुर राज्य का प्राचीन नाम “कीवी/शिवी” था,जिसकी राजधानी-‘मध्यमिका’ (जिसे
वर्तमान में -नगरी कहते हैं) थी। यहां पर मेर जाति का अधिकार था और वो हमेशा
मलेच्छों से संघर्ष करते रहे इसलिए इस क्षेत्र को ‘मेद’ अर्थात “मलेच्छों को मारने
वाला” की संज्ञा दी गई है। इसी कारण इस भाग को मेदपाट” व प्राग्वाट” के नाम से भी
जाना जाता था। मेदपाट को धीरे धीरे मेवाड़ कहा जाने लगा मेवाड़ की राजधानी उदयपुर
बनी तो इसे उदयपुर राज्य ही कहा जाने लगा। मेवाड़ के राजा स्वयं को राम के वंशज
बताते थे इसी कारण भाटों एवं चरणों ने मेवाड़ के शासकों को रघुवंशी एवं हिंदुआ सूरज
कहने लगे। गुहिल राज्य के राजचिन्ह में जो दृढ़ राखे धर्म को तिहि राखे करतार अंकित
है जो उनकी स्वतंत्रता विजेता एवं धर्म पर रहने की परंपरा को व्यक्त करता है।
मेवाड़ का गुहिल वंश राजस्थान का ही नहीं अपितु संसार के प्राचीनतम राजवंशो में से
एक है जो लंबे समय तक एक प्रदेश पर शासन किया। मेवाड़ में गुहिल वंश का संस्थापक
–गुह (गुहादित्य) मेवाड़ के गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक – बप्पा रावल 734-753
ई. शिलादित्य :- एक किवदंती के अनुसार गुर्जर राज्य मे कैहर नामक नगर था। जिसमें
देवादित्य नामक एक ब्राम्हण व उसकी पुत्री सुभागा देवी रहती थी।सुभागा देवी विवाह
की रात ही विधवा हो गई थी।सुभगा देवी के गुरु ने उसे बीजमंत्र की शिक्षा दी थी।एक
दिन असावधानी से सुभागा ने उस मंत्र का उच्चारण किया।उच्चारण के तुरंत बाद सूर्य
भगवान प्रकट हुए और सुभागा गर्भवती हो गई। देवादित्य ने लोक-लज्जा के कारण सुभागा
को वल्लभीपुर भिजवा दिया,जहाँ उसने एक पुत्र को जन्म दिया। जब बड़ा हुआ तो उसके
सहपाठी उसके पिता का नाम पूछते और उसे अपमानित करते। शिलादित्य एक दिन अपनी माता के
पास पहुँचकर अपने पिता का नाम बताने के लिए कहा अन्यथा वह उसे मार डालेगा, तभी
सूर्य भगवान प्रकट हुए और उसे सारी बात बताकर उसे एक पत्थर का टुकड़ा दिया और कहा कि
इसको हाथ में रखकर तुम किसी को भी छुओगे तो वह तत्काल गिर जायेगा। उसी पत्थर की
सहायता से उसने वल्लभीपुर के राजा को पराजित करके वहाँ का राजा बन गया।उसी समय उस
लड़के को शिलादित्यनाम से जाना जाता है। शिलादित्य पर मलेच्छों ने आक्रमण किया तो वह
उनका सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। वल्लभीपुर को मलेच्छों ने तहस-नहस कर
दिया। शिलादित्य की सभी रानियाँ उसके साथ सती हो गई।एक रानी पुष्पावती गर्भवती थी
और पुत्र की मन्नत माँगने के लिए वह अपने परमार वंशीय पिता के राज्य
चंद्रावती(आबू)में जगदंबा देवी के दर्शन करने गई हुई थी। पुष्पावती अपने पिता के घर
से वापस वल्लभीपुर जा रही थी तो रास्ते में वल्लभीपुर के विनाश का समाचार मिला।
पुष्पावती यह समाचार सुनकर वहीं पर सती होना चाहती थी परंतु गर्भावस्था के कारण
यहां संभव नहीं था। पुष्पावती ने अपनी सहेलियों के साथ मल्लीया नामक गुफा में शरण
ली, जहां उसने अपने पुत्र को जन्म दिया गुफा के पास वीरनगर नामक गांव था जिसमें
कमलावती नाम की ब्राह्मणी रहती थी। रानी पुष्पावती ने उसे अपने पास बुला कर अपने
पुत्र के लालन पालन का दायित्व सौपकर सकती हो गई। कमलावती ने रानी के पुत्र को अपने
पुत्र की भांति रखा। वह बालक गुफा में पैदा हुआ था, और उस प्रदेश के लोग गुफा को
गोह कहते थे अतः कमलावती ने अपने बच्चे का नाम गोह रखा जो आगे चलकर गोहिल नाम से
विख्यात हुआ। Note:– 1273 ई. के चिरवा शिलालेख में गुहिल शासकों की उपलब्धियों का
वर्णन मिलता है। गुहिल/ गुहिलादित्य:- गुहिल का लालन-पालन कमलावती नामक ब्राह्मणी
ने किया। धीरे-धीरे गोहिल में राजपूतों के गुण उत्पन्न होने लगे। वीर नगर के पास
ईडर नामक एक भील साम्राज्य था। जिसमें उंदरी नामक एक गांव था। गुहिलादित्य उसी
साम्राज्य में जानवरों का शिकार किया करता था।भील लोग गुहिलादित्य का बड़ा आदर करते
थे। एक दिन खेल खेल में भील बच्चों में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अपने में से किसी
को राजा बनाया जाए। इसके लिए सभी भील बच्चों ने गुहिलादित्य को ही योग्य और उचित
समझा। एक भील बालक ने तत्काल अपनी उंगली काट कर उसके रक्त से गुहिलादित्य के माथे
पर तिलक कर दिया। भीलों के वृद्ध राजा मांडलिक ने यह वृतांत सुना तो उसे बड़ी
प्रसन्नता हुई। माण्डलिक ने अपना राज्य गुहिलादित्य को सौंप दिया, और राज से अवकाश
ले लिया। Note:- मेवाड़ के महाराणाओं के राजसिंहासन के समय उंदरी गांव (ईडर)के भील
सरदार अपने अंगूठे के रक्त से राणा का तिलक राज तिलक करता था। आगे चलकर गुहिलादित्य
का नाम उसके वंशधरों का गोत्र हो गया। गुहिल के वंशज “गुहिल अथवा गुहिलोत” के नाम
से विख्यात हुए। इस गुहिलादित्य ने 566 ई. के आसपास मेवाड़ में गुहिल वंश की नींव
रख कर नागदाको गुहिल वंश की राजधानी बनाई। इसके बाद इसकी आठवीं पीढ़ी तक ईडर राज्य
पर गुहिलों शासन रहा। Note:- गुहिलादित्य “गुहिल वंश का संस्थापक/ मूल पुरुष/आदि
पुरुष” कहलाता है। नागादित्य:- गुहिल की आठवीं पीढ़ी में नागादित्य नामक एक राजा
हुआ। जिसके दूर व्यवहार से वहां के भील उससे नाराज हो गए। एक दिन जब नागादित्य जंगल
में शिकार खेलने गया था तो भीलों ने उसे घेर कर वही मार दिया और ईडर राज्य पर पुनः
अपना अधिकार जमा लिया। बप्पा रावल/कालभोज( 734-753 ई.):- नागादित्य की हत्या भीलों
ने कर दी तो राजपूतों को उसके 3 वर्षीय पुत्र बप्पा के जीवन को बचाने की चिंता
सताने लगी। इसी समय वीरनगर की कमलावती के वंशज जो कि गुहिल राजवंश के कुल पुरोहित
थे । उन्होंने बप्पा को लेकर मांडेर(भांडेर) नामक दुर्ग में गए। इस जगह को बप्पा के
लिए सुरक्षित ना मानकर बप्पा को लेकर परासर नामक स्थान पहुंचे। उसी स्थान के पास
त्रिकूट पर्वत है ,जिसकी तलहटी में नागेंद्र नामक नगर (वर्तमान नागदा) बसा हुआ था।
वहां पर शिव की उपासना करने वाले बहुत से ब्राह्मण निवास करते थे ।उन्ही ब्राह्मणों
ने बप्पा का लालन पालन करने का भार उठाया। बप्पा उन ब्राह्मणों के पशुओं को चराता
था। उन पशुओं में से एक गाय जो की सुबह बहुत ज्यादा दूध देती थी परंतु संध्या के
समय आश्रम में वापस आकर तो उसके थनों में दूध नहीं मिलता। ब्राह्मणों को संदेह हुआ
कि बप्पा एकांत में उस गाय का दूध पी जाता है। बप्पा को जब इस बात का पता चला तो
वास्तविकता जानने के लिए दूसरे दिन जब गायों को लेकर जंगल गया तो उसी गाय पर नजर
रखी। उसनेे देखा कि वह गाय एक निर्जन गुफा में घुस गई। बप्पा भी उसके पीछे गया और
उसने वहां देखा कि बेल-पत्रों के ढेर पर वह गाय अपने दूध की धार छोड़ रही थी। बप्पा
ने उसके पास जाकर उन पत्तो को हटाया तो उसके नीचे एक शिवलिंग था जिसके ऊपर दूध की
धार की रही थी। Note:- इसी स्थान पर बप्पा ने एकलिंग जी का मंदिर बनवाया था। बप्पा
ने उसी शिवलिंग के पास एक समाधि लगाए हुए योगी को देखा। उस योगी का ध्यान टूट गया
परंतु उसने बप्पा से कुछ नहीं कहा। बप्पा उस योगी (हारित ऋषि ) की सेवा करने लगा।
हारित ऋषि ने उसकी सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर शिवमंत्र की दीक्षा देकर उसे “एकलिंग
के दीवान” की उपाधि दी। हारित ऋषि ने शिव लोक जाने का समय आया तो उसने बप्पा को
निश्चित समय पर आने को कहा। बप्पा निश्चित समय पर आने में लेट हो गया तो हारित ऋषि
रथ पर सवार होकर शिवलोक की तरफ चल पड़े थे । उन्होंने बप्पा को आते देख कर रथ की
चाल धीमी करवाकर का बप्पा को अपना मुंह खोलने को कहा। हरित ऋषि ने उसके मुंह में
थूकने का प्रयास किया तो बप्पा ने अपना मुंह बंद कर लिया। जिससे वह थूक बप्पा के
पैरों पर पड़ा । हारित ऋषि ने उससे कहा कि यदि यह पान(थूक) तुम्हारे मुंह पर गिरता
तो तुम अमर हो जाते, फिर भी तुम्हारे पैरों पर पड़ा है इसलिए तुम्हारे अधिकार से
मेवाड़ का राज्य नहीं हटेगा। इससे पूर्व हारीत ऋषि ने बप्पा के लिए मेवाड़ का राज्य
माँग लिया था। हारित ऋषि ने बप्पा को मेवाड़ राज्य और वरदान में दे दिया। हरित ऋषि
ने एक स्थान बताते हुए बप्पा से कहा कि वहां पर तुझे खजाना मिलेगा। उस खजाने की
सहायता से तू अपनीे सैनिक व्यवस्था सुदृढ़ करके मेवाड़ पर विजय प्राप्त कर लेना।
बप्पा ने हारित ऋषि के कहे अनुसार धन निकाल कर एक बड़ी सेना तैयार की और चित्तौड़
पर अपना अधिकार कर लिया । इस प्रकार बप्पा के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित है।
सी.वी. वैद्य ने बप्पा को “चार्ल्समादित्य” कहा है। Note:- मुहणोत नैणसी व कर्नल
जेम्स टॉड के अनुसार, बप्पा रावल का मूल नाम – “कालभोज/मालभोज” था । जिसे हारीत ऋषि
ने मेवाड़ विजय का आशीर्वाद देते हुए उसे “बप्पा रावल” की उपाधि से विभूषित किया।
वैद्यनाथ प्रशस्ति के अनुसार, बप्पा रावल ने हारित ऋषि के आशीर्वाद से 734 ई. में
चित्तौड़ पर आक्रमण किया और चित्तौड़ के राजा मान मौर्य को पराजित कर 734 ई./ 800
ई.में चित्तौड़ में गुहिल वंश के साम्राज्य की स्थापना की। बप्पा का मूल नाम कालभोज
था “बप्पा” इसकी उपाधि थी। बप्पा रावल महेंद्र द्वितीय का पुत्र था बप्पा रावल ने
अपने गुरु हारित ऋषि के आशीर्वाद से उदयपुर के समीप कैलाशपुरी नामक स्थान पर एकलिंग
जी का मंदिर बनवाया । बप्पा के समय से ही एकलिंग जी को मेवाड़ का वास्तविक शासक
मानकर तथा” स्वयं एकलिंग जी के दीवान’ बन कर राज कार्य करने की परंपरा शुरू हुई।
Note:- मेवाड़ के शासक जब भी राजधानी छोड़कर कहीं दूसरी जगह जाते तो वह उससे पूर्व
एकलिंग जी की आज्ञा लेते थे इसे ही “आसकां लेना” कहते हैं। बप्पा रावल ने अपने
साम्राज्य की प्रथम राजधानी नागदा को बनाई । नागदा में सहस्रबाहु (सास बहु का
मंदिर) बनवाया बप्पा रावल प्रथम गुहिल शासक था जिसने मेवाड़ में सोने के सिक्के
चलाए। बप्पारावल ने स्वर्ण सिक्के पर त्रिशूल का चिन्ह तथा दूसरी तरफ सूर्य का अंकन
करवाया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि बप्पा रावल भगवान शिव के उपासक थे और स्वयं को
सूर्यवंशी मानते थे। बप्पा रावल ने उदयपुर के एकलिंग जी नामक स्थान पर शिव के 18
अवतारों में से एक लकुलिश(शिव) का मंदिर बनवाया जो कि राजस्थान मे एक मात्र लुकलिश
मंदिर है। बप्पा रावल के बारे में कहा जाता है कि “वह एक झटके में दो भैंसो की बलि
देता था, 35 हाथ की धोती और 16 हाथ का दुपट्टा पहनता था। उसकी खड़ग 32 मन की थी। वह
4 बकरों का भोजन करता था और उसके सेना में 12 लाख 72 हजार सैनिक थे।” Note:- मेवाड़
में गोहिल वंश का संस्थापक /आदि पुरुष “गुहिलादित्य” है तो मेवाड़ में गुहिल वंश का
वास्तविक संस्थापक/गुहिल साम्राज्य का संस्थापक/ प्रथम प्रतापी शासक “बप्पा रावल”
है। आम्र कवि द्वारा लिखित “एकलिंग प्रशस्ति‘ में बप्पा रावल के संन्यास लेने की
घटना की पुष्टि होती है। बप्पा रावल के बाद मेवाड़ के महेंद्र तथा नाग मेवाड़ के
शासक बने। इनमें से मेवाड़ के भीलों ने महेंद्र हत्या कर दी और नाग केवल नागदा के
आसपास की भूमि पर अपना अधिकार रख पाया। 753 ई. में बप्पा रावल की मृत्यु नागदा में
हुई थी,जहाँ उसकी समाधि बनी हुई है जिसे वर्तमान में बप्पा रावल के नाम से जानते
हैं । एकलिंगजी के पास इनकी समाधि “बप्पा रावल” नाम से प्रशिद्ध है। इतिहासकार
‘सी.वी.वैद्य” ने बप्पा रावल को “चार्ल्स मार्टल” कहा है शिलादित्य:- भीलों ने
मेवाड़ पर जब अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया तो नागदा के उत्तराधिकारी शिलादित्य
ने नागदा के आसपास की भूमि को भीलों से छीन ली और उसने अपने नाम के तांबे के सिक्के
चलाए। अपराजित:- शिलादित्य के बाद अपराजित मेवाड़ का शासक बना। अपराजित अपनी सैनिक
शक्ति को खूब बढ़ाया इसके बारे में नागदा के कुंडेश्वर के शिलालेख (641ई.) में से
पता चलता है कि अपराजित ने अपने शत्रुओं का नाश किया। कालभोज:- अपराजित के बाद उसका
पौत्र कालभोज (महेंद्र सिंह द्वितीय का पुत्र )मेवाड़ का शासक बना।कालभोज को
आटपुर(आहड़) के लेख में अपने वंश की शाखा में “मुकुट मणि” के समान बताया गया है।
खुम्माण प्रथम:- कालभोज के बाद उसका पुत्र खुम्माण मेवाड़ का शासक बना।खुम्माण के
बाद मेवाड़ का राज्य अंधकार की ओर जाने लगा। खुम्माण प्रथम के बाद मत्तट, भृतभट
सिंह,खुम्माण द्वितीय और खुम्माण तृतीय मेवाड़ के क्रमशः शासक बने ।इन शासकों का
कोई विशेष वर्णन हमें इतिहास में नहीं मिलता। भृतभट द्वितीय:- खुम्माण तृतीय के बाद
उसका पुत्र भृतभट द्वितीय मेवाड़ का शासक बना। इसके बारे में हमें आटपुर(आहड़) लेख (
977 ईस्वी) से जानकारी मिलती है। आटपुर लेख में इसको “तीनों लोकों का तिलक” बताया
है ।उसी लेख में बताया है कि उसने राष्ट्रकूट वंश की रानी महालक्ष्मी के साथ विवाह
किया। 942 ईस्वी के प्रतापगढ़ अभिलेख में उसे “महाराजाधिराज” की उपाधि से पुकारा
गया। अल्हट:- भृतभट द्वितीय के बाद उसकी रानी राष्ट्रकूट( राठौर वंश) की रानी
महालक्ष्मी से उत्पन्न हुए पुत्र अल्हट मेवाड़ का शासक बना। जिसे ख्यातों में “आलू
-रावल” कहा गया है। अल्हट ने हुण राजकुमारी हरिया देवी के साथ विवाह कर हूणों की व
अपने ननिहाल पक्ष राष्ट्रकूटों की सहायता से अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अल्हट
ने मेवाड़ में पहली बार नौकरशाही (जिस दिन से नौकरशाही अंदाज़ में जीने लग जाए तो
वह नौकरशाही कहलाती है।) की शुरुआती की, जो वर्तमान में भी पूरे देश में चल रही है।
अल्हट में नागदा से राजधानी बदलकर नई राजधानी आहड़ को बनाई और वहां पर वराह मंदिर का
निर्माण करवाया। अल्हट के बाद उसका पुत्र नरवाहन मेवाड़ का शासक बना। नरवाहन:-
अल्हट की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नरवाहन मेवाड़ का शासक बना। नरवाहन ने चौहानों
के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए चौहान राजा जेजय की पुत्री से विवाह किया। उसके
बाद मेवाड़ के गुहिल वंश की शक्ति का हास् शुरु हो गया। शक्ति कुमार ( 977-93 ईस्वी
) शक्ति कुमार के समय पहली बार गुहिलों को अपने मूल प्रांत चित्तौड़ को छोड़ना पड़ा
क्योंकि इसके शासनकाल के समय मालवा के शासक मूंज आहड़/ आघाटपुर को नष्ट कर चित्तौड़
दुर्ग और उसके आसपास के प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया। मुंज के उत्तराधिकारी व
उसके छोटे भाई सिंधराज के पुत्र (भतीजे )भोज परमार ने चित्तौड़ में रहते हुए
“त्रिभुवन नारायण मंदिर” बनवाया जिसे वर्तमान में ‘मोकल का मंदिर या समिदेशवर
मंदिर” के नाम से जाना जाता है। यह सब जानकारी हमें 997 ईस्वी के “अस्तिकुंड के
शिलालेख” से मिलती है। कुंभलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार भोज परमार ने नागदा में “भोजसर
नामक तालाब” बनवाया था। शक्ति कुमार के बाद अंबा प्रसाद मेवाड़ का शासक बना जो कि
चौहान राजा वाकपति राज से परास्त होकर युद्ध में मारा गया। इसके बाद 10 अयोग्य शासक
– नरवरमन, शुचिवर्म, कीर्तिवर्म, योगराज, वैरेट, हंसपाल, वेरीसिंह, विजयसिंह,
अरिसिंह, चौड़सिंह, विक्रम सिंह आदि हुए।
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